मैं चिंगारी हूँ
“चिंगारी” !
मैं सिर्फ तीन अक्षरों का एक शब्द हूँ.
मैं क्या, क्या कर सकती हूँ उसका आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते.
मेरे रहने के बहुत सारे मुकाम हैं.
मैं जब शांत होती हूँ तब मुझे कोई देख भी नहीं पाता.
मेरे कई रूप है. मैं जब दिखती हूँ तो जलते हुए छोटे बिंदु के रूप में होती हूँ
मुजे कोई हवा दे दे, कोई परेशान करे तो मैं ज्वाला का रूप धारण करती हूँ.
तब सिर्फ मैं खुद ही नहीं जलती, औरों को, जो मेरे बीचमे आये उन्हें भी जलाती हूँ.
मेरे स्वभाव के भी कई रंग है.
मैं सभी के ह्रदय में बिराजमान हूँ.
आत्मा के अंदर मैं हमेशा शांत-स्वरूप, निराकारी, निर्लेप परब्रह्म हूँ.
उस स्वरूप में, सिर्फ ‘साक्षी स्वरूप’ होते हुए भी लोगों की जीवन-दोर संभालती हूँ
बुध्धिमान, तत्व्ज्ञानी, और चिंतकों के दिमागमे स्थित ज्ञान प्रदान करने वाली प्रेरणा हूँ.
शाश्त्रार्थीओं, पंडितों, विज्ञानीओं, आचार्यों, गणीत-शाश्त्रीओंके ज्ञानकोष का मैं आधार-बिन्दु हूँ.
ज्ञानीओं के मस्तिष्कमें छिपे हुए ज्ञान का मैं परम कुंज हूँ, जहां से ज्ञान की चमक उठती रहती है
मनुष्यके अहंकारमें फ़ैली हुई ईर्ष्या की राख के नीचे हमेशा खामोश बैठी हुई छोटी सी चिंगारी हूँ, मैं.
सभी परिस्थितिऑ में धैर्य रखना मुझे आता है, फिर भी अहंकार बढ़ता है तब ज्वाला बन जाती हूँ मैं.
जिन्दगीकी कठीनाइओं से माय्युस, गिरे हुए लोगोंके दिलमे आशा-उमंग को जगाने वाली चिंगारी हूँ मैं.
निति के मार्ग पर चलने वाले लोगोंको प्रगति, शांति, सुखाकारी के आशीर्वाद से प्रकाशित करती हूँ मैं
दूसरों की सफलता, उन्नति और सिध्धिओं पर जलने वालों को सुख से मैं कभी रहने नहीं देती हूँ.
‘आध्यात्म की चिंगारी ’ बन कर इश्वर र्की साधना में लगे हुए साधकों का पथ प्रकाशित करती रहती हूँ.
मैं हमेशां जलती रहती हूँ - उनके लिए जिन्हों ने खुद जल कर दूसरों के जीवन में उजाला किया हो.
मैं जलाती रहती हूँ उन सब को जिन्हों ने औरों के सुख-चैन छिन कर यातनाओं के सिवा कुछ दिया ना हो.
मैं चिंगारी हूँ. सभी के हृदयमे हमेशां प्रज्वलित रहती हूँ.
जीवनकी संध्या समयमें
जीवनकी संध्या समयमें ,आइये, हम
अपना बोज हल्काकरते हुए
‘जीवन-मूल्यों’ जैसी कोई चीज़ बाकी बची है क्या ?
जीवन कि सिढियो से प्रगति की ऊन्चाइऑ को हांसिल करने के बजाय, हम दिन-प्रतिदीन नीचे और नीचे ही गिरते जाते हैं. पीढ़ीओं से गिरे हुए जिन संस्कारों के साथ हम नया जन्म ले कर आते हैं, वे निम्नतर संस्कार प्रत्येक जन्म में और नीचे गिरते रहते हैं. जीवनके मूल्यों का अवसान हो चूका है और फिर भी हम हमेशां मरते रहते हैं, जब भी कोई बुरी सोच को पालते हुए निंदनीय कार्य करते हैं. ऊपर से नीचे तक सब गिरे हुए हैं.
उनको हम ‘ईश्वर’ क्यों न कहें ?
जैसे हम सब जीवों का भविष्य होता है, ठीक उसी प्रकार हरेक देशका भी भविष्य होता है कौनसे देशमे, कौनसी पार्टियां कितने उलटे-सीधे, गोल-माल, भर्ष्टाचार-अत्याचार करके ऊपर उठी हैं कौनसे देशका पापों का घडा भर चुका है, किसे गिरना है और किस सात्विक देशको ऊपर उठाना है ये सब बातें उस ‘ईश्वर’ को पता है क्यों कि वोही ‘धर्म’-‘अधर्म’ में धर्मके पलड़े को उठाये रखता है
हम ने चलना सिखा था, चलते गिरना सिखा था,
हम ने चलना सिखा था, चलते गिरना सिखा था,
गिरके संभलना सिखा था और गिरके उठे तो
आसमान में उड़ना भी सिखा था
वसुधैव कुटुम्बकम
दिया जलता रहे साल भर
२०७६ के नए वर्षकी ये सभी शुभ कामनाएं
आप सभी के लिए साकार हों ऐसी प्रार्थना.
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