इश्वर भी भला ऐसी खिलवाड़ करते हैं क्या?
जब तूने मुझे इस धरती पर भेजा था
तब हाथमे सिर्फ एक पर्चा थमा दिया था.
“तुम्हारे पूरे जीवनकी कुंडली इसमे मिलेगी” तुमने कहा था,
“जैसे जैसे बड़े होते जाओगे, तब पढ़ते रहना” यह भी कहा था.
मैंने चाहा था मेरे पूरे जीवन की कहानी उसमे मैं पढ़ पाउँगा.
लेकिन माँ ने मना किया था: “रोज पढ़ा नहीं करते, ये विधाता के लेख हैं.”
तबसे संभाल के अलमारीमें रख दिया था, “दिक्कत आएगी तब पढूंगा” यह सोच कर.
पिताजी चल बसे और घरकी जिम्मेदारी मैंने संभाली तब उसे देखना चाहा.
खोल कर देखा तो उसमें सिर्फ एक ही शब्द पढ़ सका.
नौकरी छूट गई तब भी यही हुआ. जीवनसाथीने किनारा कर लिया तब भी वही.
रिश्ते-नाते छूटे, कुछ मुझसे टूटे, कुछ उन्होंने तोड़े; बाद मैं था और मेरी तनहाई.
तब भी मैंने उस कागज़ को नहीं खोला, ऐसे भी तो वह खाली ही दीखता था,
जब सुनामी आई, गावों, घरें, खेत, मंदिरें, गुरूद्वारे, सभी तो धराशायी हूए थे उस बाढ़ में.
अब कोरोना आया, दुनियाके देशों में, शहरों में, घरों में लोग मरते रहे, परिवार टूटते रहे
मेरा दिल भी टूट चुका था और मैंने खोला जो कागज़ तुमने दिया था, लिखा था “तथास्तु”
और हे ईश्वर, तुम सून सको इतनी ऊंची आवाज़ से गुस्से में मैंने तुमसे पूछा: “ऐसी खिलवाड़?”
“विधाता के ये कैसे लेख लिखे तुमने? जीवनके सभी हालात में सिर्फ एक ही शब्द : ‘तथास्तु ?”
और मेरे अंतर-आत्मा की गहराईओं में से तुम्हारी आवाज़ सुनाई दी: “हिमत नहीं हारते मेरे बच्चे,
तुम्हारे पूरे जीवनके रास्तों पर उठने वाली सभी आंधीयोंमें से ऊपर उठ कर तुम फिरसे चल सको,
अपने पैरों पर खड़े रहकर जीवनकी ऊंचाईओं तक खुदका रास्ता तुम बना सको ऐसा मैंने चाहा था.
तुम जो भी चाहो, वे तुम्हें मिल सके यही उद्देश से मैंने लिख दिया था “तथास्तु”;
तुम्हें दिया हुआ यह मेरा एक ‘blank check” था. लेकिन न तुमने कुछ चाहा, ना कुछ मांगा,
जीवनके रास्तों पर तुम तो सिर्फ चलते ही रहे; तुम जब कुछ माँगते हो तो एक उद्देश कायम हो जाता है
इस जन्म में कहाँ पहुंचना चाहते हो उस मुकाम को पक्का करो , तमन्ना और परिश्रम्की मशाल ले कर बस चल पडो.
और तुमने निर्धारित किये हुए उन रास्तों के हरेक कदम ऊपर मेरी आवाज़ तुम्हे सुनाई देगी : “तथास्तु, तथास्तु .”
मैं चाहता हूँ की मेरे सभी बच्चे अपने जीवनकी किताब खुद लिखें, और तब जा कर मेरे ‘तथास्तु’ शब्द सार्थक होंगे .”
मैं ईश्वर हूँ, मै यहीं हूँ,
“यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारत
अभुथान्म्धार्मस्य तदात्मानं स्रुज्यामहम”
जब जब धर्मकी हानि होती है, अधर्म बढ़ता है,
तब मैं आता हूँ, और अवतार लेता हूँ.
कुरुक्षेत्र की रण भूमि में मैंने यह भी कहा था :
तब भी मैंने इसी लिए ही अवतार लिया था.
“परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे””
मन-मंदिरमे शान्ति की प्रतिमा बिठाएं
जो जीवन-शैलीके साथ जी रहे हैं,
नीतिके जो मार्ग थे उनसे दूर हो चले हैं
औरों के प्रति जो द्वेष-भावसे जी रहे हैं
इसी लिए तो हम सब दू:खी हैं
देवों के देव, महा देव,
जो मौजूद थे जब हम नहीं थे,
कितनी ही पीढियां आती रहे, जाती रहे.
जो बिराजमान है ऐश्वर्य की उस ऊँचाई पर
जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते.
उस परम ‘कल्याण तत्व’ को हम शाष्टांग प्रणाम करें ,
भगवानकी प्रतिज्ञा
आइए, पहले हम सून लें कि भगवानने हम सबके लिए क्या प्रतिज्ञा की है:
“मेरे मार्ग पर पैर रखकर तो देख,
तेरे सब मार्ग खोल ना दूं तो कहना.
मेरे लिए खर्च करके तो देख,
कुबेरका भण्डार खोल ना दूं तो कहना.
मेरे लिए कडवे वचन सुनकर तो देख,
कृपा ना बरसे तो कहना.
"अहं ब्रह्मास्मि"
ईश्वर के प्रति जिनकी श्रध्धा मजबूत है वे जानते हैं कि हमारे आस पास जो भी हो रहा है उसके पीछे कोई तो मकसद अवश्य है. कोई अपने पूर्व जन्मोंके कर्मों का भुगतान कर रहा है , कोई नए कर्मों की लकीरें खिंच रहा है तो कोई पिछले जन्मोके कर्मों से बाहर आने का तरीका खोज रहा है.
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