Co rona पे क्यों रोना’  आया ?

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया

Feb 16, 2024 06:41 PM - Harish Panchal ('hriday')

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हम जिए जा रहे थे अपनी शांत जिन्दगीको

जैसे हमारे पूर्वजों कई युगों से जीते आ रहे थे

ना कोई शिकवा था, न किसीसे कोई गिला था

अगर था भी तो दो दिलों के बीचकी वे बातें थी

किसी तीसरी आत्मा से ना कुछ लेना या देना था,

संसारके सभी परिवार उनकी रोजिंदाके जीवन-कार्य में मशरूफ थे .

सुबह्का चाय-नाश्ता होता था, पूजा-पाठ होते थे,

नौकरी-धंधे वाले अपने अपने कामो पर जाते थे

बच्चे स्कूल-कालेज जाते थे, घरकी बहनें रसोई-घरमें

शामके बाद सबके वापस आनेकी आहटें सुनाई देती थी

और रातों में पूरे परिवारके साथ हँसी-मज़ाक और खाना.

बच्चों के होम वर्क, खेल-कूद, किचन-बर्तन,TV के साथ रातें ढलती थी.

फिर अचानक क्या हुआ पूरा जीवन जीने का सबका तरीका बदल गया

कुछ ऐसी बिजली गिरी, किसकी बद-दुआऑ की चिंगारी ऐसी लगी

जो अच्छे-खासे लोगों को महामारिकी आगमे जौंकती रही और फैलती रही

बीमार कई सारे होने लगे लेकिन कई दिनों तक उन्हें बिमारिकी भनक लगी नहीं

तब तक उस महामारिने अच्छे-भले लोगों को जैसे जिन्दा लाशों में तब्दील कर लिया था

ना सांस ले पाते थे, न चलनेकी शक्ति जुटा पाते थे, जिनसे मिलते थे उन्हें शिकार बनाते जाते थे  

बिमारी भी ऐसी जिसका ना कोई इलाज था, इलाज का किसीको कोई  पता था, बस फैलते रहने का आलम था  

और क़यामत तब महेसूस हुई जब सारी दुनियामे एक के बाद दूसरे देशों में यह महामारी फैलती रही

पके हुए फल जैसे पेड़ों से गिरते हैं, वैसे लोग एक के बाद एक मरने लगे, जिन्हें दफनानेकी जगह भी कम थी

सरकारने लोगों की जान बचानेको सबके मिल-झुल, आवागमन, ट्रांसपोर्ट, सभी धंधे रोजगार स्थगित  किये थे

अलग, अलग कार्य-क्षेत्रमे दुनियामे फैले हुए लोग घरोंसे दूर, जहाँ थे वहीँ फंस चुके थे, यातायात बंध की हुई थी.  

अब ये हालात है की ४०-४५ दिनोसे मध्यम वर्ग और गरीबों के घरों में अनाज –पानी नहीं है, पैसे नहीं है

देश-निकाला होता है तबके जैसी गमगीनी और माय्युसी ने दिलों-दिमाग के पर कब्ज़ा जमा कर रखा है

अंतरमन की  गहराईओं से आनंद, उम्मीदें , भावनाएं , सद्भाव लुप्त हो चुके हैं , कल क्या होगा उसका पता नहीं

एकांत में बैठकर घंटों तक  रो लेनेको दिल चाहता है , लेकिन सहारा देने वाले  खंधे खुद सहारा ढूंढ रहे हैं

कौन किसे सहाय देनेको हाथ बढायें, जिन से उम्मीद थी उन सब के  हाथ मदद मांग ने को फैले हुए हैं

ये हालात हैं कि  जिधर भी नजर डालें बस, यही माहोल दिखाई देता है, दुनियाके अक्सर देशों का यही हाल है

तब जा कर दिलसे एक आवाज उठती है की हमारे दु :खों में जो सम भागी है उनके साथ बैठ कर  दु :खोंको बांटें

और कहीं से एक नगमा, सुनाई देता है : “कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया “ आइये, हम भी गायें “

“कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया”..  https://www.youtube.com/watch?v=KcZ3GSHpJ3s

आइए, हम सब सुनहरी अक्षरों से हमारे देशका भविष्य लिखें

Feb 16, 2024 08:08 PM - Harish Panchal

हमारी इस मात्रुभूमिने हमें बहुत कुछ दिया है

सबसे ऊंचा मान्वजन्म, जिसने हमें अच्छे विचार करनेकी भेंट दी,

रचनात्मक कार्य करनेकी सोच दी.

कर्म करते रहनेकी सीख दी; और उन कर्मो के कर्तृत्व भावसे दूर रहने की दिशा दिखाई.

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हमने चाहा तो था प्यारसे गले मिलते चलें ...

Feb 16, 2024 07:56 PM - Harish Panchal

वो चल रहे थे एक रास्ते पर

हम भी चल रहे थे और रास्ते पर.

दोनों चल रहे थे लेकिन हम एक-दूजे से मिल ना पाये

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न्याय्की देवी खामोश क्यों है?

Feb 16, 2024 05:41 PM - Harish Panchal ('hriday')

दुनियामे जबसे न्याय प्रणालीका का आरम्भ हुआ तबसे ग्रीक संस्कृति और मान्यता पर आधारित  न्याय की देवीकी आँखें एक काली पट्टीसे बंध है. इक हाथमे तलवार और दूसरे हाथमे तराजू लेकर Lady Justice खड़ी है. अब तक ऐसा माना जाता था कि इन्साफ करते समय न्याय्की देवी ना तो दोस्त देखती थी, ना तो अपराधिकी जात, gender, उम्र, मोभ्भा (status), होद्दा (position), कुछ नही नहीं देखती थी, जो सच्चा निर्णय करनेके बाधारूप बने. जब निष्पक्ष न्याय हो तब तराजू के दोनों पल्ले समतोल (balance) हो जाने चाहिये.  

आज हम जो समयसे गुज़र रहे है वहां  हमारे सबके दिल और दिमागमें यह प्रश्न उठ रहा है कि उन  ऊंचे आदर्शों पर संस्थापित की हुई न्यायकी देवी आज भी निष्पक्ष न्याय कर पाती है क्या? ईश्वरको दिखावे के लिए मंदीरमे जाकर, भेंट चढ़ाकर, बाहार आकर घिनोने काम करते हैं, ऐसे समयमे उस बेचारी न्याय्की देवी को कौन सुनने को तैयार है?

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सुबह कभी तो आनी ही है  

Feb 16, 2024 06:55 PM - Harish Panchal ('hriday')

लॉक डाउन के सन्नाटों में सोये शांत शहरों की गलीओमें छाई है उदासी

उन सबमें कभी तो सुनाई पड़ेगी चहल पहल से प्रेरित एक नई संजीवनी.

 

खामोशीमें लिपटी हुई, शहरकी जो बंद दुकानों पर लगे हुए ताले थे,

उन सबके खुल्ले दरवाजे हाथ जोड़ कर हमारा स्वागत कर रहे होंगे.

 

स्मशान जैसी शान्तिमे सोये थे चौराहे, गलीयाँ, स्टेशनें और ओफिसें  

वे सब रास्ते, गाड़ीयां, और स्टेशनों एक नइ रफ्तारसे ट्राफिक जाम कर रहे होंगे.

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हमें इज्जतसे जीना है या शर्मके चुल्लू भर पानीमें डूब के मरना है?

Feb 16, 2024 01:43 PM - हरीश पंचाल 'ह्रदय'

चुनाव आते हैं और जाते हैं, जानेके बाद भी फिर, कई बार आते रहते हैं

वे अपने साथ कुछ अच्छाइयाँ लाते हैं, अधिकतम आक्रोश और अराजकता लाते हैं

पार्टियाँ वादे करती हैं, वादे करनेके पैसे नहीं खर्च होते, लेकिन कौन वादों को निभाता है?

घरोंके दर्वाज़े पर दस्तक देना, दो हाथोंको जोड़ कर चहेरे पर लुभावनी मुस्कानें पहनकर

बड़ी नर्मीसे कहना “हम आपके भलेके लिए ही आये हैं अगर आपका वोट हमें मिल जायें”

वे जाते हैं, थोड़े देरके बाद कई और पार्टियों के उम्मीदवार आते हैं. वही लुभावना अंदाज़,

और कहना “अगर आप हमें जीता दें तो हम बिजली-पानी मुफ्त कर देंगे और पैसे बचायेंगे!

आखरी दिन भी बचे कुचे उम्मीदवार “मुफ्त्मे लेपटॉप और पढाई फी माफ़ करनेका” वादा करते हैं.

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