हमने चाहा तो था प्यारसे गले मिलते चलें ...
वो चल रहे थे एक रास्ते पर
हम भी चल रहे थे और रास्ते पर.
दोनों चल रहे थे लेकिन हम एक-दूजे से मिल ना पाये
उनका हाथ अपने हाथोंमे ले कर, दिलों से दिलों को मिलाकर चलना चाहते थे हम
चाहा तो था हमने ऊंचाई तक जाते हुए रास्ते पर मिल-झूल कर चलते रहेंगे
सोचा था दोनों रास्ते कहीं न कहीं, कभी न कभी एक दूजे से मिलेंगे
और तब जा कर प्रेमसे हम उनके साथ चल पायेंगे, विचारों का मेल-मिलाप कर पायेंगे
कई सालों तक हम चलते रहे, वे भी चलते रहे, लेकिन दूरियां बढती रही
ना रास्ते मिल पाये, ना तो हम क़रीब आ पाये,
सोच हमारी अलग थी, उनकी सोच अलग थी
हम साथ मिलकर देशको आगे बढ़ाना चाहते थे, वे देशको बाँट कर तोडना चाहते थे
हमने सोचा वे हमारे ही भाई थे, पर हमारे देशमे रहकर भी ना वे हमारे हो पाए, ना देशके
हम प्रेमकी, एक-दुजेको जोडनेकी भाषा बोल रहे थे, वे सबंधोको तोडनेकी, आपसमे लडानेकी
हम अपने देशका भला चाहते थे, वे देशको बेहाल करनेका, लूंटके खानेका, औरोंको बेहाल करनेका
ईश्वरने बनाए हुये A, AB, O, O+ जैसे खूनके प्रकार हम में भी थे और उनमे भी.
इंसानियतकी समज़ हममे थी और दिमाग़ तो ईश्वरने उनको भी दिया था
फिर भी क्यों जब हम देशका भला चाहते थे वे देशकी बुराई ही सोचते रहे और बुराई करते रहे
ईसी मिटटीमें पलते हुए, देशकी जमीनपर रहते हुए, ईसी देशका खाते हुए क्यों वे देशको गिरानेमे लगे रहे?
समज़ा था उन्हें ‘दोस्त’ और देशके रक्षक हमारे, पर वो थे जो पीठमें खंजर घुसाते रहे, देशको बेचते रहे,
या खुदा, अकल दे उन्हें, या बदल दे नियत उनकी जो ‘सरफरौसि’ और ‘ देश-द्रोही’ शब्दोंमे फर्क ना ढूंढ सके.
हे ईश्वर, आशीष दे हमें कि नीति, प्रेम, सत्कर्मों और सत्यके मार्ग ऊपर हम और हमारा देश चलते ही रहें.
और दूर कर उनको जो हमारी और हमारे देशकी उन्नतिकि सफरमे टांग अडाके देशकी छातीपर रौंदकर चलते हे.
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
या देवी सर्वभूतेषु मातृ-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
सौम्यक्रोधधरे रुपे चण्डरूपे नमोऽस्तु ते । सृष्टिरुपे नमस्तुभ्यं त्राहि मां शरणागतम् ॥
घोररुपे महारावे सर्वशत्रुभयङ्करि । भक्तेभ्यो वरदे देवि त्राहि मां शरणागतम् ॥
न्याय्की देवी खामोश क्यों है?
दुनियामे जबसे न्याय प्रणालीका का आरम्भ हुआ तबसे ग्रीक संस्कृति और मान्यता पर आधारित न्याय की देवीकी आँखें एक काली पट्टीसे बंध है. इक हाथमे तलवार और दूसरे हाथमे तराजू लेकर Lady Justice खड़ी है. अब तक ऐसा माना जाता था कि इन्साफ करते समय न्याय्की देवी ना तो दोस्त देखती थी, ना तो अपराधिकी जात, gender, उम्र, मोभ्भा (status), होद्दा (position), कुछ नही नहीं देखती थी, जो सच्चा निर्णय करनेके बाधारूप बने. जब निष्पक्ष न्याय हो तब तराजू के दोनों पल्ले समतोल (balance) हो जाने चाहिये.
आज हम जो समयसे गुज़र रहे है वहां हमारे सबके दिल और दिमागमें यह प्रश्न उठ रहा है कि उन ऊंचे आदर्शों पर संस्थापित की हुई न्यायकी देवी आज भी निष्पक्ष न्याय कर पाती है क्या? ईश्वरको दिखावे के लिए मंदीरमे जाकर, भेंट चढ़ाकर, बाहार आकर घिनोने काम करते हैं, ऐसे समयमे उस बेचारी न्याय्की देवी को कौन सुनने को तैयार है?
आइए, हम सब सुनहरी अक्षरों से हमारे देशका भविष्य लिखें
हमारी इस मात्रुभूमिने हमें बहुत कुछ दिया है
सबसे ऊंचा मान्वजन्म, जिसने हमें अच्छे विचार करनेकी भेंट दी,
रचनात्मक कार्य करनेकी सोच दी.
कर्म करते रहनेकी सीख दी; और उन कर्मो के कर्तृत्व भावसे दूर रहने की दिशा दिखाई.
माँ की बहुत याद आती है...
पश्चिमी देशोंमें पूरे सालमें एक बार आता हुआ ‘Mother’s Day’ हमारी मातृभूमि पर पहले हमने कभी सुना नहीं था. फिर भी हम सब अपनी, अपनी माताओं से एक ही ‘wavelength पर जुड़े रहते आये हैं. रोज़-बरोज़की जिन्दगीमें अक्सर जब, जब माँ घर पर नहीं होती थी तो घर खाली, खाली सा लगता था.
हमने कभी भी माँ को शब्दोंमें यह नहीं जताया था कि उसके बगैर घर कितना खाली, खाली महेसूस होता था, फिर भी मनमें हमेशां यह सत्य उभरता रहता था कि माँ के बगैर आधा घंटा भी एक लम्बे युग जैसा प्रतीत होता था.
हमें इज्जतसे जीना है या शर्मके चुल्लू भर पानीमें डूब के मरना है?
चुनाव आते हैं और जाते हैं, जानेके बाद भी फिर, कई बार आते रहते हैं
वे अपने साथ कुछ अच्छाइयाँ लाते हैं, अधिकतम आक्रोश और अराजकता लाते हैं
पार्टियाँ वादे करती हैं, वादे करनेके पैसे नहीं खर्च होते, लेकिन कौन वादों को निभाता है?
घरोंके दर्वाज़े पर दस्तक देना, दो हाथोंको जोड़ कर चहेरे पर लुभावनी मुस्कानें पहनकर
बड़ी नर्मीसे कहना “हम आपके भलेके लिए ही आये हैं अगर आपका वोट हमें मिल जायें”
वे जाते हैं, थोड़े देरके बाद कई और पार्टियों के उम्मीदवार आते हैं. वही लुभावना अंदाज़,
और कहना “अगर आप हमें जीता दें तो हम बिजली-पानी मुफ्त कर देंगे और पैसे बचायेंगे!
आखरी दिन भी बचे कुचे उम्मीदवार “मुफ्त्मे लेपटॉप और पढाई फी माफ़ करनेका” वादा करते हैं.
सुबह कभी तो आनी ही है
लॉक डाउन के सन्नाटों में सोये शांत शहरों की गलीओमें छाई है उदासी
उन सबमें कभी तो सुनाई पड़ेगी चहल पहल से प्रेरित एक नई संजीवनी.
खामोशीमें लिपटी हुई, शहरकी जो बंद दुकानों पर लगे हुए ताले थे,
उन सबके खुल्ले दरवाजे हाथ जोड़ कर हमारा स्वागत कर रहे होंगे.
स्मशान जैसी शान्तिमे सोये थे चौराहे, गलीयाँ, स्टेशनें और ओफिसें
वे सब रास्ते, गाड़ीयां, और स्टेशनों एक नइ रफ्तारसे ट्राफिक जाम कर रहे होंगे.
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