माँ की बहुत याद आती है...
पश्चिमी देशोंमें पूरे सालमें एक बार आता हुआ ‘Mother’s Day’ हमारी मातृभूमि पर पहले हमने कभी सुना नहीं था. फिर भी हम सब अपनी, अपनी माताओं से एक ही ‘wavelength पर जुड़े रहते आये हैं. रोज़-बरोज़की जिन्दगीमें अक्सर जब, जब माँ घर पर नहीं होती थी तो घर खाली, खाली सा लगता था.
हमने कभी भी माँ को शब्दोंमें यह नहीं जताया था कि उसके बगैर घर कितना खाली, खाली महेसूस होता था, फिर भी मनमें हमेशां यह सत्य उभरता रहता था कि माँ के बगैर आधा घंटा भी एक लम्बे युग जैसा प्रतीत होता था.
हम लडकोंने औरोंके मुंहसे अक्सर यह सुना था कि अपने बच्चोंको जन्म देते समय माँ को कितना असह्य कष्ट होता था, सिर्फ बेटियाँ ही माँ बनते समय खुद अनुभव कर सकती थी , लेकिन लड़कोंको इस गहरे कष्टकी भनक भी नहीं हो पाती थी.
और जन्मके पहलेके आठ-नव महीनों दरम्यान माँ ने जो यातनाएं सही थी उन सबका ज़िक्र तो खुद माँ ने भी किसीके पास नहीं किया था. इन सभी कष्टों को तो हमारा जन्म होते ही वह जैसे हमेशांके लिए भूल गई थी क्यों कि एक नई आत्माको इस पृथ्वी पर अवतरित करना ही उसके जीवनका उद्देश बन चुका था. जन्मके बाद उस नइ, नन्हीं सी जानको पहली बार हाथमे लेते हुए ही जैसे सारे संसारकी खुशियाँ उसे मिल चुकी थी और इस ईश्वरीय आनंदके सामने वे सभी कष्ट भी विलीन हो चुके थे.
माँ पहले प्रहरमें उठकर नहा-धो कर, पूजा-पाठ करके झाड़ू-पोंछा, बर्तन करके हम सबके लिए नाश्ता तैयार रखती थी, हमारी स्कूलके समय के पहले हमें खाना खिलाकर, साथमे टिफिन भरके स्कूल भेजती थी.
स्कूल घरसे लम्बी दूरी पर होनेके कारण खुद हमें छोडने और वापस लेनेको आती थी. साथमे एक-दो सालके छोटे भाई याँ बहनको हाथों में उठाकर पैदल ही आती थी. हमारे नन्हें हाथोंको स्कूलकी किताबें और दफ्तरका बोज़ ना उठाना पड़े इस वजहसे हमारा दफ्तर भी वोह उठा लेती थी.
घरमे पैसों की हमेशां कमी रहती थी, फिर भी हमारी सभी मांगोंको, हमारी ज़रूरतोंको इतनी कुशलता और कामयाबीसे संभालती थी कि हमें कभी अहेसास भी नहीं होता था कि घरमें पैसों की हमेशां कमी रहती थी.
बचपनके सालोंमें अक्सर हम बच्चोंके एक-दुसरेसे दंगे-फसाद होते रहते थे. किसीने मारा हो, या कोई गहरी चोट खाई हो तब आँखोंमें आंसूओंके साथ सबसे पहले माँ याद आती थी और हम दौड़कर माँकी गोदमें घुस जाया करते थे. सर पर माँका ममतासे भरा हुआ हाथ क्या फिरा, और हमारी सभी चोटें और शिकवे ऐसे गायब हो जाते थे जैसे मानो कुछ हुआ ही न हो!
शरारत भरा हमारा बचपन बीता, फिर भी भाई-बहनोंके शिकवे और एक दूसरेको परेशान करने का दौर जारी था. हम सभी एक-दुसरे के लिए माँ को ही फ़रियाद करते रहते थे. माँके लिए उसके सभी बच्चे उसे जानसे प्यारे थे. फिर भी ऐसी मासूमियत, प्रेम और शांतिसे वोह हमारी फरियादें दूर करती थी कि हम भाई-बहनें फिर आपसमें प्रेमसे पेश आते थे.
आज हम काफी बड़े हो गए हैं, शादी हो गई है, धंधे-रोज़गार की जिम्मेदारी, बच्चोंकी पढ़ाई और दूसरे शहरोंमें और देशों में आमदानीके स्तोत्र मिले हुए थे इस वजहसे हम अपने घर से बहुत दूर आकर बसना पडा था. तबसे हम आपसमें एक भौगोलिक दूरीका अनुभव करने लगे थे. फिर भी माँ हमेशां हमें फोन करती रहती थी और हम सब कुशल है यह जान कर तसल्ली का सांस ले लेती थी.
पता ही नहीं चला कि वह भौगोलिक दूरी आहिस्ता, आहिस्ता ह्रदयके फासलेमें परिवर्तित हो रही थी और एक-दूसरोंके प्रति लगाव कुछ कुछ कम होता हुआ महेसूस होने लगा था. माँ गाँवमें रहती थी, हम शहरमें. और हमारे बच्चे अब ऊंची पढ़ाईके लिए परदेश जा बसे थे. जिन बच्चों को हमने जन्म दिया था, बड़ा करके पाल पोसकर, कोलेज कराके आगे पढनेके लिए अथवा ऊंची नौकरीके लिए विदेश भेजा था उनसे हमेशां रातोंमें फोन पर अथवा whatsapp पर अथवा skype पर बातें करनेमें सोनेका समय हो जाता था. दूसरे दिन काम पर जाना होता था. इस चहल-पहलमें माँ बाबुजीसे लम्बे अरसे तक बात नहीं हो पाती थी.
कई सप्ताह, और महीने ऐसे ही गुज़र जाते थे. विदेशमे बसे हुए बच्चों का तीन-चार दिनों तक फोन नहीं आता था तो मनमें एक प्रकारकी निराशा फ़ैल जाती थी. अब वे काफी बड़े हो चुके हैं, उन्होंने शादी करके वहीँ घर बसा लिया था.
अब २-३ महीनों तक बच्चोंके फोन नहीं आते थे, बातें नहीं हो पाती थी; अब हमारी सेहत भी बिगड़ती रहती थी. हम जब उन्हें फोन करते थे और उनकी सेहतके बारेमें अपनी चिंता जताते थे तो वे कहते हैं, “हम सब अच्छे हैं . आप हमारी फ़िक्र न करें.”
कितने महीनोंके बाद आज सुबहमें बेटे और बेटीके परिवारोंसे फोन आया. :”आज Mothers’ Day है, पापा और मम्मा. इस लिए आपको बधाई देनेके लिए फोन किया.” चार-पांच मिनिट तक फोन चला फिर “बाय, पप्पा, बाय मम्मा” कह कर फोन शांत हो गया. मैं और मेरी पत्नी अपनी तन्हाईके बीच एक-दुसरे का हाथ पकड़ कर बैठे रहे.
पता नहीं, आज, अचानक मुझे अपनी माँ की याद आ गई! मेरे माता-पिता भी हमारे बगैर तन्हाईमें जीवन व्यतीत कर रहे होंगे. जब हमारी सेहत बिगडती थी तब विदेशमें बसे हुए हमारे बच्चोंकी याद हमें बहुत सताती थी. तो मेरे माता-पिताकी क्या हालत होगी? , और तब जा कर मेरी आँखें भर आने लगी. कल ही माँ और पिताजीको फोन करके उनकी सेहतका हाल जान लेंगे. यह सोच कर मैंने तय कर लिया दुसरे दिन गाँव जानेका. बिचमें सिर्फ एक रातका फासला था.
उतनेममें शामको ही गाँवसे पिताजी का फोन आया. बहुत ही गहरे आवाज़में उनके शब्द सुनाई दिए, “बेटा, आज सुबहमें तेरी माँ चल बसी. अब वोह इस दुनियामें नहीं है. सिर्फ तुझे खबर देनेके लिए फोन किया.. अच्छा मैं रखता हु. ...” और फोन disconnect होने के पहले पिताजीके रोनेकी आवाज सुनाई दी...”
मेरे शरीरकी साँसें तो चल रही थी लेकिन ऐसा लगा जैसे मेरी आत्मा मेरा शरीर छोड़कर जाना चाहती हो! , मैं कुछ बोल नहीं पाया, ह्रदयकी गहराईओं से एक चीख उठी और आंखोंमेसे अश्रुओं की नदीयाँ बहने लगी. मेरी पत्नीने मुझे पकड़ लिया. उसे भी बहुत गहरा सदमा पहुँचा.
पहने हुए कपड़ों में हम दोनों गाड़ीमें बैठ कर गाँव की और निकल पड़े. तीन घंटों की सफरमें मैं रोता रहा और बाजुमें बैठी हुई मेरी पत्नी शायद एक बहु होनेका फ़र्ज़ निभानेमें नाकाम रहनेकी कमनसीबी पर खामोश बैठी रही.
जब घर पर पहुंचे तो माँ की अर्थी उसके बेटेके आनेका इंतज़ार कर रही थी. रोते हुए पिताजीकी आवाज़ सुनाई दी: ‘”बेटे तूने आखरी समय पर आकर तेरे बेटे होनेका फ़र्ज़ निभाया. उसके लिए तेरी माँ की तरफसे तेरा आभार जताता हूँ.”
और फिर अर्थी उठी और दिलको काटती हुई पंक्तियाँ सुनाई दी: “राम नाम सत्य है, राम नाम सत्य है..”
और तब जा कर मेरे दिलसे आक्रोश्का एक ध्वनी उठा जो मुझे कह रहा था, “देख, आज ‘Mothers’ Day पर ही तेरी माँ तुझसे बिदाई ले रही है...तेरी माँ तेरे वियोगमें ही चल बसी और आज पिताजी भी अकेले हो गए...”
मेरी माँ के मृत्देह्की स्मशान यात्राको रूकवा कर, अर्थी पर सोई हुई मेरी माँ को उठा कर उसे कहनेका दिल चाहा, कि “माँ, मुझे माफ़ कर दे. अब मैं आ गया हूँ, वापस चल, अब साथमे मिलकर रहेंगे..” लेकिन, जिनकी आत्माएं शरीरका त्याग करके अपनी आगेकी यात्रा पर निकल चुकी हो, वे पुन: शरीरमें आ कर बातें किया नहीं करती.
अपने बच्चों का भविष्य उज्वल करनेके लिए मैंने अपने माता-पिताको वनवास दे दिया था.
विदेश जा कर वहां पढ़ाई कर के, अच्छी नौकरी प्राप्त करनेका जो एक trend कई वर्षोंसे चला आ रहा था, उस trend में कितने परिवार इसी तरहसे बेहाल हो गए , और पता नहीं कब जा कर रुकेगा देशको छोड़ कर विदेश जाता हुआ यह कारवां..
आइये , आगे कुछ भी बोले बगैर, कुछ भी किये बगैर, सबसे पहले अपनी अपनी माताओं से ह्रदयका तार मिलाते हुए उनकी आंखोंमे आँखें मिला कर उनसे बातें कर लें , पता नहीं कितनी माताएं हमसे मिलनेको, हमसे बातें करनेको तलस रही होगी
कहीं ऐसा ना हो कि अंतर में स्मित ले कर “Happy Mother’s Day” कहने के बजाय हमें रोती हुई आँखों से “राम नाम सत्य है” के उच्चार करने पड़े.. क्यों कि “माँ” ही ईश्वरका दूसरा स्वरूप है..
ईश्वरके बाद इस धरती के ऊपर अगर कोई पूजनीय है तो वह “माँ” के सिवाय कोई हो नहीं सकता. और बादमे पिता और ‘गुरु’
तो आइये आज हम सब मिलकर अपनी, अपनी माँ के लिए ह्रदयकी गहराईसे चाहत और प्रेमकी नदी बहायें, जो दुनियाकी सभी माताओं तक पहोंचे...
‘Co rona पे क्यों रोना’ आया ?
कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया
फिर अचानक क्या हुआ पूरा जीवन जीने का सबका तरीका बदल गया
कुछ ऐसी बिजली गिरी, किसकी बद-दुआऑ की चिंगारी ऐसी लगी
जो अच्छे-खासे लोगों को महामारिकी आगमे जौंकती रही और फैलती रही
बीमार कई सारे होने लगे लेकिन कई दिनों तक उन्हें बिमारिकी भनक लगी नहीं
तब तक उस महामारिने अच्छे-भले लोगों को जैसे जिन्दा लाशों में तब्दील कर लिया था
ना सांस ले पाते थे, न चलनेकी शक्ति जुटा पाते थे, जिनसे मिलते थे उन्हें शिकार बनाते जाते थे
हमने चाहा तो था प्यारसे गले मिलते चलें ...
वो चल रहे थे एक रास्ते पर
हम भी चल रहे थे और रास्ते पर.
दोनों चल रहे थे लेकिन हम एक-दूजे से मिल ना पाये
न्याय्की देवी खामोश क्यों है?
दुनियामे जबसे न्याय प्रणालीका का आरम्भ हुआ तबसे ग्रीक संस्कृति और मान्यता पर आधारित न्याय की देवीकी आँखें एक काली पट्टीसे बंध है. इक हाथमे तलवार और दूसरे हाथमे तराजू लेकर Lady Justice खड़ी है. अब तक ऐसा माना जाता था कि इन्साफ करते समय न्याय्की देवी ना तो दोस्त देखती थी, ना तो अपराधिकी जात, gender, उम्र, मोभ्भा (status), होद्दा (position), कुछ नही नहीं देखती थी, जो सच्चा निर्णय करनेके बाधारूप बने. जब निष्पक्ष न्याय हो तब तराजू के दोनों पल्ले समतोल (balance) हो जाने चाहिये.
आज हम जो समयसे गुज़र रहे है वहां हमारे सबके दिल और दिमागमें यह प्रश्न उठ रहा है कि उन ऊंचे आदर्शों पर संस्थापित की हुई न्यायकी देवी आज भी निष्पक्ष न्याय कर पाती है क्या? ईश्वरको दिखावे के लिए मंदीरमे जाकर, भेंट चढ़ाकर, बाहार आकर घिनोने काम करते हैं, ऐसे समयमे उस बेचारी न्याय्की देवी को कौन सुनने को तैयार है?
हमें इज्जतसे जीना है या शर्मके चुल्लू भर पानीमें डूब के मरना है?
चुनाव आते हैं और जाते हैं, जानेके बाद भी फिर, कई बार आते रहते हैं
वे अपने साथ कुछ अच्छाइयाँ लाते हैं, अधिकतम आक्रोश और अराजकता लाते हैं
पार्टियाँ वादे करती हैं, वादे करनेके पैसे नहीं खर्च होते, लेकिन कौन वादों को निभाता है?
घरोंके दर्वाज़े पर दस्तक देना, दो हाथोंको जोड़ कर चहेरे पर लुभावनी मुस्कानें पहनकर
बड़ी नर्मीसे कहना “हम आपके भलेके लिए ही आये हैं अगर आपका वोट हमें मिल जायें”
वे जाते हैं, थोड़े देरके बाद कई और पार्टियों के उम्मीदवार आते हैं. वही लुभावना अंदाज़,
और कहना “अगर आप हमें जीता दें तो हम बिजली-पानी मुफ्त कर देंगे और पैसे बचायेंगे!
आखरी दिन भी बचे कुचे उम्मीदवार “मुफ्त्मे लेपटॉप और पढाई फी माफ़ करनेका” वादा करते हैं.
सुबह कभी तो आनी ही है
लॉक डाउन के सन्नाटों में सोये शांत शहरों की गलीओमें छाई है उदासी
उन सबमें कभी तो सुनाई पड़ेगी चहल पहल से प्रेरित एक नई संजीवनी.
खामोशीमें लिपटी हुई, शहरकी जो बंद दुकानों पर लगे हुए ताले थे,
उन सबके खुल्ले दरवाजे हाथ जोड़ कर हमारा स्वागत कर रहे होंगे.
स्मशान जैसी शान्तिमे सोये थे चौराहे, गलीयाँ, स्टेशनें और ओफिसें
वे सब रास्ते, गाड़ीयां, और स्टेशनों एक नइ रफ्तारसे ट्राफिक जाम कर रहे होंगे.
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