हमें इज्जतसे जीना है या शर्मके चुल्लू भर पानीमें डूब के मरना है?

Feb 16, 2024 01:43 PM - हरीश पंचाल 'ह्रदय'

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चुनाव आते हैं और जाते हैं, जानेके बाद भी फिर, कई बार आते रहते हैं

वे अपने साथ कुछ अच्छाइयाँ लाते हैं, अधिकतम आक्रोश और अराजकता लाते हैं

पार्टियाँ वादे करती हैं, वादे करनेके पैसे नहीं खर्च होते, लेकिन कौन वादों को निभाता है?

घरोंके दर्वाज़े पर दस्तक देना, दो हाथोंको जोड़ कर चहेरे पर लुभावनी मुस्कानें पहनकर

बड़ी नर्मीसे कहना “हम आपके भलेके लिए ही आये हैं अगर आपका वोट हमें मिल जायें”

वे जाते हैं, थोड़े देरके बाद कई और पार्टियों के उम्मीदवार आते हैं. वही लुभावना अंदाज़,

और कहना “अगर आप हमें जीता दें तो हम बिजली-पानी मुफ्त कर देंगे और पैसे बचायेंगे!

आखरी दिन भी बचे कुचे उम्मीदवार “मुफ्त्मे लेपटॉप और पढाई फी माफ़ करनेका” वादा करते हैं.

फिर सरकारें बनती है लेकिन मिली-जुली, गठ-बंधन, शठबंधन वाली सरकारें कहाँ टिकती है?

राज्यका, देशका भला कौन करता है, उन सबको तो अपनी तकदीर बनानेका प्लानिंग करना होता है.

“लाखों”की बातें तो पुरानी हो गई अब तो “करोड़ों”की बोली लगती है, योजनाएं भी करोड़ोंकी होती है.

“हमारी सरकारने क्या विकास किया?” इस के बजाय “कितनी पीढ़ीओंका कमाया?” यह पूछते हैं.

सत्तामें आनेके बाद “जिन्होंने वोट दिए उनको कौन पूछता है? अब तो हम कहेंगे वही क़ानून है!”

“अगर यही माहोल है कितने सालों का तो इसके जिम्मेदार कौन है? यह सवाल किसे पूछें?

क्यों कि “मुफ्त्का पानी और बिजली मांगने वाले” हम ही तो थे! “मुफ्त्मे लेपटॉप” लेनेवाले भी हम थे!

खुद हम वोट देनेवालों ने अपने आपको रिश्वतखोरों के हाथ बेच दिया है, हमारी अक्ल कहाँ गई थी?

इस दुनियाके रिश्वत्खोरोंकी भीडमें हम सब शामिल हैं, अरे शर्म करो किस मूंह से शिकायत करते हो?

जो हमारे देशके साथ गद्दारी करते आये हैं वे आज गुंडागिरीसे अपने पैर फैला कर बैठे हैं,

और एक हम हैं जो अपना नुकसान समजते हुए भी डर के मारे  खामोश बैठे हैं.

सिर्फ एक अकेला फ़रिश्ता है जिसे खुद ईश्वरने भेजा है हमें ऊपर उठानेको लेकिन हम सोये हुए.

बेवकुफों, अंग्रेजों के शाशनमें कितनी सदियाँ बिताई? और खामोश रहकर फिर वहाँ जा रहे हो?

अरे, देखो एक अकेले मसीहाने कितना विकास करके हमारा सीर दुनियाके देशोंमे ऊंचा कर दिया?

किसे वोट देना इसकी अक्ल अब भी नहीं आयी है तो डूब मरो चुल्लूभर पानीमे .....

सुबह कभी तो आनी ही है  

Feb 16, 2024 06:55 PM - Harish Panchal ('hriday')

लॉक डाउन के सन्नाटों में सोये शांत शहरों की गलीओमें छाई है उदासी

उन सबमें कभी तो सुनाई पड़ेगी चहल पहल से प्रेरित एक नई संजीवनी.

 

खामोशीमें लिपटी हुई, शहरकी जो बंद दुकानों पर लगे हुए ताले थे,

उन सबके खुल्ले दरवाजे हाथ जोड़ कर हमारा स्वागत कर रहे होंगे.

 

स्मशान जैसी शान्तिमे सोये थे चौराहे, गलीयाँ, स्टेशनें और ओफिसें  

वे सब रास्ते, गाड़ीयां, और स्टेशनों एक नइ रफ्तारसे ट्राफिक जाम कर रहे होंगे.

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हमने चाहा तो था प्यारसे गले मिलते चलें ...

Feb 16, 2024 07:56 PM - Harish Panchal

वो चल रहे थे एक रास्ते पर

हम भी चल रहे थे और रास्ते पर.

दोनों चल रहे थे लेकिन हम एक-दूजे से मिल ना पाये

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न्याय्की देवी खामोश क्यों है?

Feb 16, 2024 05:41 PM - Harish Panchal ('hriday')

दुनियामे जबसे न्याय प्रणालीका का आरम्भ हुआ तबसे ग्रीक संस्कृति और मान्यता पर आधारित  न्याय की देवीकी आँखें एक काली पट्टीसे बंध है. इक हाथमे तलवार और दूसरे हाथमे तराजू लेकर Lady Justice खड़ी है. अब तक ऐसा माना जाता था कि इन्साफ करते समय न्याय्की देवी ना तो दोस्त देखती थी, ना तो अपराधिकी जात, gender, उम्र, मोभ्भा (status), होद्दा (position), कुछ नही नहीं देखती थी, जो सच्चा निर्णय करनेके बाधारूप बने. जब निष्पक्ष न्याय हो तब तराजू के दोनों पल्ले समतोल (balance) हो जाने चाहिये.  

आज हम जो समयसे गुज़र रहे है वहां  हमारे सबके दिल और दिमागमें यह प्रश्न उठ रहा है कि उन  ऊंचे आदर्शों पर संस्थापित की हुई न्यायकी देवी आज भी निष्पक्ष न्याय कर पाती है क्या? ईश्वरको दिखावे के लिए मंदीरमे जाकर, भेंट चढ़ाकर, बाहार आकर घिनोने काम करते हैं, ऐसे समयमे उस बेचारी न्याय्की देवी को कौन सुनने को तैयार है?

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आइए, हम सब सुनहरी अक्षरों से हमारे देशका भविष्य लिखें

Feb 16, 2024 08:08 PM - Harish Panchal

हमारी इस मात्रुभूमिने हमें बहुत कुछ दिया है

सबसे ऊंचा मान्वजन्म, जिसने हमें अच्छे विचार करनेकी भेंट दी,

रचनात्मक कार्य करनेकी सोच दी.

कर्म करते रहनेकी सीख दी; और उन कर्मो के कर्तृत्व भावसे दूर रहने की दिशा दिखाई.

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माँ की  बहुत याद आती है...

Feb 16, 2024 12:29 PM - हरीश पंचाल 'ह्रदय'

पश्चिमी देशोंमें पूरे सालमें एक बार आता हुआ ‘Mothers Day’ हमारी मातृभूमि पर पहले हमने कभी सुना नहीं था. फिर भी हम सब अपनी, अपनी माताओं से एक ही ‘wavelength पर जुड़े रहते आये हैं. रोज़-बरोज़की जिन्दगीमें अक्सर जब, जब माँ घर पर नहीं होती थी तो घर खाली, खाली सा लगता था.

 

हमने कभी भी माँ को शब्दोंमें यह नहीं जताया था कि उसके बगैर घर कितना खाली, खाली महेसूस होता था, फिर भी मनमें हमेशां यह सत्य उभरता रहता था कि माँ के बगैर आधा घंटा भी एक लम्बे युग जैसा प्रतीत होता था.

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