आइए, हम सब सुनहरी अक्षरों से हमारे देशका भविष्य लिखें
हमारी इस मात्रुभूमिने हमें बहुत कुछ दिया है
सबसे ऊंचा मान्वजन्म, जिसने हमें अच्छे विचार करनेकी भेंट दी,
रचनात्मक कार्य करनेकी सोच दी.
कर्म करते रहनेकी सीख दी; और उन कर्मो के कर्तृत्व भावसे दूर रहने की दिशा दिखाई.
जीवनके कभी नहीं ख़त्म होनेवाले रास्तोंपर चलते, चलते बहुत सारे मुकाम आये और गये.
हम सब चलते रहे, चलते रहे. इन रास्तोंपर चलते हुए अनगिनत लोग हमारे राहबर बनते गये
हम सब एक-दूजेका हाथ थामे चलते रहे, रास्तोंमे बिखरे सुख-दुख और उतार-चढ़ावको पार करके चलते रहे
कई बार ऐसे चौराहोंपर आकर रुके जहाँ किसके साथ जाना है, किस दिशामे जाना है वोह निर्णय नहीं ले पाये.
हम जिसकी छाती पर चलते आयें वोह हमारी मातृभूमि, जिसके आकाशके निचे आसरा लिया वोह हमारा देश.
जहाँ हम जन्मे, प्रगति करके आकाशको छूना चाहा, और ईश्वरकी खोजमे आध्यात्मिक्ताके रास्ते पर चल दिये
वोह हमारी मा थी, वोह हमारा देश था, और जिनके साथ अनगिनत रास्तों पर चलते आये वे हमारे भाई-बहन थे
सभी खुद हमारे अपने थे. तो फिर हमारी मातृभूमि पर, हमारे देशमें आतंकी - हमले कौन करता-करवाता था?
शिवजी, रामायण, महाभारत के समयमें भी आतंकी थे, सिर्फ उनका नाम अलग था – वे ‘राक्षस’ कहलाते थे.
लेकिन उनको हटानेके लिये ईश्वरने अपने फरिश्तोंको पृथ्वीपर भेज रखे थे. समय चलता रहा, युग बदलते रहे.
कोई फरिश्तेने बलसे, कोई संतने प्रेमसे, कोई आध्यात्मिक साधकने ईश्वरकी शक्तिसे उनका खात्मा किया,
इनमेसे थे Jesus, Moses, राम, लक्ष्मन, कृष्ण, बलराम, बुध्ध, महावीर, तुलसीदास, नरसिंह. मीरा, सखुबाई
अलग, अलग जन्मोंमें हम शरीर बदल, बदलके पृथ्वीपर आते रहे, संत, महात्मा, अराजक और आतंकी भी आये.
हर युग में सरकारें बनती रही, गिरती रही, बदलती रही; फिर प्रजाकी सुविधाके नहीं, उन्हें लूटनेके दौर चलते रहे
देशके भण्डार खाली होते रहे, नेताओंकी तीजोरियाँ भारती रही, भ्रष्टाचारियों मिलकर सरकार बनाकर लूटते रहे.
किसी कविने लिखा था “सरकार बनने –बनानेका मतलब है काजलकी काली इमारत का निर्माण और उसमे प्रवेश“
समय आ गया है एक नइ सरकार बनानेका. ऐसी सरकार जो सिर्फ देशको ही नहीं सारे विश्वको राह दिखा सके.
विचारोंमे दूरदर्शी हो, प्रजाका हीत हो, निर्णयोंमें जोश हो, बाहोंमें ताकत हो, और योजनाओसे कायमी विकास हो’,
हांसिल की हुई सिध्धिओंका, सफलताका सबूत हो, ईरादे नि:स्वार्थ हो, प्रजा दिलसे जिन्हें अधिकतम चाहती हों.
ऐसी एक नई सरकार हम बनाये, जो हमारे देशको, प्रजाको और विश्वको नइ दिशाओं में लेकर आगे बढती रहे.
हम आज़ाद तो १९४७ मे हो गए थे. उसके पहले हम अंग्रेजोंके गुलाम थे, बादमे खुद हमारे अपने हमें लूटते रहे
कितने सालों तक हम एक सरकारके शासंकालमें माय्युस थे, सहमे सहमे थे, न कोई उम्मीद थी, ना कोई विकास. तब दिलसे कई बार यह आवाज़ उठती रही, “और नहीं, अब और नहीं, गमके प्याले और नहीं” जो किसीने ना सूनी
अचानक ईश्वरने पांच साल पहले एक ऐसा फ़रिश्ता भेजा, जिसने हमें बर्बादिकी खाईसे निकालकर ऊपर उठाया.
आज हम फिर ऐसे ही एक चौराहे पर आ खड़े हैं जहाँ शासनकालके बद्लावकी मौसमने देशमे पड़ाव डाला है.
सभी सात्त्विक लोग नीति-धर्म पर चलनेवाले पक्षको चुनना चाहते है, लेकिन देशके ही दुश्मनोकी नियत बुरी है.
आज होलीके पवित्र अवसर पर हम आप सबको ईश्वरकी, और माँ दुर्गा और होलीकी प्रार्थनामें सामिल करते हैं कि:
“आपके उसी फरिश्तेको देशका शासंन दीजिये जिसने हमे २०१४ मे ७० साल लम्बी यातनासे बहार निकाला था”..
न्याय्की देवी खामोश क्यों है?
दुनियामे जबसे न्याय प्रणालीका का आरम्भ हुआ तबसे ग्रीक संस्कृति और मान्यता पर आधारित न्याय की देवीकी आँखें एक काली पट्टीसे बंध है. इक हाथमे तलवार और दूसरे हाथमे तराजू लेकर Lady Justice खड़ी है. अब तक ऐसा माना जाता था कि इन्साफ करते समय न्याय्की देवी ना तो दोस्त देखती थी, ना तो अपराधिकी जात, gender, उम्र, मोभ्भा (status), होद्दा (position), कुछ नही नहीं देखती थी, जो सच्चा निर्णय करनेके बाधारूप बने. जब निष्पक्ष न्याय हो तब तराजू के दोनों पल्ले समतोल (balance) हो जाने चाहिये.
आज हम जो समयसे गुज़र रहे है वहां हमारे सबके दिल और दिमागमें यह प्रश्न उठ रहा है कि उन ऊंचे आदर्शों पर संस्थापित की हुई न्यायकी देवी आज भी निष्पक्ष न्याय कर पाती है क्या? ईश्वरको दिखावे के लिए मंदीरमे जाकर, भेंट चढ़ाकर, बाहार आकर घिनोने काम करते हैं, ऐसे समयमे उस बेचारी न्याय्की देवी को कौन सुनने को तैयार है?
हमें इज्जतसे जीना है या शर्मके चुल्लू भर पानीमें डूब के मरना है?
चुनाव आते हैं और जाते हैं, जानेके बाद भी फिर, कई बार आते रहते हैं
वे अपने साथ कुछ अच्छाइयाँ लाते हैं, अधिकतम आक्रोश और अराजकता लाते हैं
पार्टियाँ वादे करती हैं, वादे करनेके पैसे नहीं खर्च होते, लेकिन कौन वादों को निभाता है?
घरोंके दर्वाज़े पर दस्तक देना, दो हाथोंको जोड़ कर चहेरे पर लुभावनी मुस्कानें पहनकर
बड़ी नर्मीसे कहना “हम आपके भलेके लिए ही आये हैं अगर आपका वोट हमें मिल जायें”
वे जाते हैं, थोड़े देरके बाद कई और पार्टियों के उम्मीदवार आते हैं. वही लुभावना अंदाज़,
और कहना “अगर आप हमें जीता दें तो हम बिजली-पानी मुफ्त कर देंगे और पैसे बचायेंगे!
आखरी दिन भी बचे कुचे उम्मीदवार “मुफ्त्मे लेपटॉप और पढाई फी माफ़ करनेका” वादा करते हैं.
‘Co rona पे क्यों रोना’ आया ?
कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया
फिर अचानक क्या हुआ पूरा जीवन जीने का सबका तरीका बदल गया
कुछ ऐसी बिजली गिरी, किसकी बद-दुआऑ की चिंगारी ऐसी लगी
जो अच्छे-खासे लोगों को महामारिकी आगमे जौंकती रही और फैलती रही
बीमार कई सारे होने लगे लेकिन कई दिनों तक उन्हें बिमारिकी भनक लगी नहीं
तब तक उस महामारिने अच्छे-भले लोगों को जैसे जिन्दा लाशों में तब्दील कर लिया था
ना सांस ले पाते थे, न चलनेकी शक्ति जुटा पाते थे, जिनसे मिलते थे उन्हें शिकार बनाते जाते थे
माँ की बहुत याद आती है...
पश्चिमी देशोंमें पूरे सालमें एक बार आता हुआ ‘Mother’s Day’ हमारी मातृभूमि पर पहले हमने कभी सुना नहीं था. फिर भी हम सब अपनी, अपनी माताओं से एक ही ‘wavelength पर जुड़े रहते आये हैं. रोज़-बरोज़की जिन्दगीमें अक्सर जब, जब माँ घर पर नहीं होती थी तो घर खाली, खाली सा लगता था.
हमने कभी भी माँ को शब्दोंमें यह नहीं जताया था कि उसके बगैर घर कितना खाली, खाली महेसूस होता था, फिर भी मनमें हमेशां यह सत्य उभरता रहता था कि माँ के बगैर आधा घंटा भी एक लम्बे युग जैसा प्रतीत होता था.
हमने चाहा तो था प्यारसे गले मिलते चलें ...
वो चल रहे थे एक रास्ते पर
हम भी चल रहे थे और रास्ते पर.
दोनों चल रहे थे लेकिन हम एक-दूजे से मिल ना पाये
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