चाहना की चाहत में सारा जीवन गंवाया

खुद अपनेमे ही झाँक कर नहीं देखा

Feb 22, 2024 12:40 PM - Harish Panchal ('hriday')

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‘चाहना’ की इस चाहतमें मैं बरसों से खोया था,

दर दर भटका मारा मारा, नहीं रातों को सो पाया था.

 

जबसे मैंने होश सम्भाला खुदको माताकी गोदी में पाया,

बड़ा हो कर यारों की यारीमे देखा, गैरों की नासमज़ी में देखा.

 

मैंने चाहा तो था चाहत को पा लूं ,

पा कर पृथ्वीके हर मानव में बांटूं .

 

लेकिन चाहतको मैंने जितना चाहा,

उतना ही दूर मैंने खुद अपनों से पाया.

 

चाहा ‘चाहत’ की परिभाषाको जानूँ  - पहेचानूँ,

और जब मिले, मानवता की राहों पर बिछा दूं.

 

लेकिन चाहत को मैंने बिकते देखा,

चाहत के पीछे अपनोंको गैर होते देखा.

 

अपनों के जो नाते थे, उन नातों के कई रिश्ते थे,

वे अपने तो थे पर उनकी चाहतके चाहक कोई और ही थे .

 

सब नाते अपनी जगहपे सही थे, लेकिन निष्ठाएं कहीं और थी,  

इसी लिए रिश्ते - नातोंके सिर्फ व्यव्हार थे, चाहतकी कमी थी.

 

वे, मैं, आप, चाह्नाकी उस चाहतमें अब तक सब जीते रहे,

इस उम्मीदमें कि जीवनके कोई मोड़ पर कभी मिल जाय.

 

मिले हुए इस जन्ममें हम कई मिलों तक चलते रहे, बस चलते रहे,

हारे, थके हुए, ‘चाहत’ की प्यास से विचलित, आकाशकी  तरफ देखते रहे.

 

सोचा था इश्वर ऊपर रहेता है वहांसे वह सब देखता होगा,

तो उसे यह फ़रियाद पहुंचाई “बता, तेरी दुनियामें चाहत कहाँ है?”

 

तो दिलके अंदरसे आवाज़ उठी “मैं चाहतका खजाना ले कर तेरे अंदर ही बैठा हूँ”

सारी दुनियामें खोजनेके बजाय तूने खुदको चाहा होता तो दुनियाकी चाहत तुजे मिल चूकी होती”

 

तब जा कर समझा कि कुदरत की हरेक दुआ खुद हमारे दिलसे उठती है और दुनियामें फैलती है,

दुनियाके नाते रिश्ते चाहतमें भले ही कमजोर हों, जब हम देते हैं तब दुनिया ब्याज सहित लौटाती है.

 

तो आइये हम देते रहें, बस देते ही रहें , अच्छे कर्म करते रहें और कर्म-संन्यास भी.

 

हरीश पंचाल – ‘ह्रदय’

जीवनकी संध्या समयमें

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अपना बोज हल्काकरते हुए

 

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Sep 28, 2019 08:15 PM - Harish Panchal

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आज हमारे प्रधान मंत्री की दहाड़  और मार्गदर्शनके पीछे दुनियाको एक नई दिशा दिखती है.

आज हम इतना ऊपर उठ चुके हैं कि हम ‘Super Powers’ की कक्षामें आ चुके हैं.

अब हमें नीचे नहीं गिरना है. हमने ‘विकासकी मशाल’ पकड़ी है , जो सबको राह दिखानी है

 

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