“अर्जुनविषादयोग”
“अर्जुनविषादयोग”
आज जन्माष्टमी का अति पवित्र दिवस है.
आज के दिन दुनियाके शाश्त्रोंमें जो लिखे गए थे उनमेसे एक अग्रणी, महा पवित्र और आध्यात्मिक ग्रंथो में अति मूल्यवान ‘श्रीमद भगवद गीता’ का प्रत्यक्ष पठन योगेश्वर भगवान् श्री कृष्णने किया था. यह महान विभूति, जिसने धर्म और अधर्मके युध्ध्मे रणभूमिके बीचोबीच अर्जुनको मानवता धर्मका ज्ञान दिया था उनका आज जन्म दिन है. बहुत ही पवित्र दिवस है और इस अवसरपर हम, आपके साथ मिलकर उनके दिव्य मार्गदर्शन को हमारे जीवनमे उतारनेके हेतु से पवित्र ‘गीता-गंगा’ में स्नान करने जा रहे हैं.
वेद व्यासजी जब श्लोक के बाद श्लोक बोलते जा रहे थे तब उनका लिखा हुआ कुछ छूट ना जाये इस हेतुसे उन्होंने श्री गणेशजीको आग्रह किया की जैसे एक श्लोकका उच्चारण पूरा हो, गणेशजी को एक छोटीसी भूल के बगैर, अर्थ बदले बगैर उसे लिख देना चाहिये. गणेशजीने स्वीकार तो किया, लेकिन खुदकी एक शर्त भी सूना दी, के वे बीचमे बिलकुल ही रुकेंगे नहीं. अगर बीचमे रुकना पड़ता है, तो वे उठके चले जायेंगे. वेद व्यासजी के पास और कोई रास्ता नहीं था. और तबसे सम्पूर्ण मानव जिवन को प्रकाशित करने वाली मार्ग दर्शिका ५००० वर्षोंसे हम सबको जीवनका रास्ता दिखाए जा रही है.
मंगल मूर्ति श्री गणेशजी के सिवा कोई भी मांगलिक कार्य आशीर्वाद नहीं पा सकता. यही कारणसे हमारे इस “भगवद गीता प्रेरित हमारा जीवन” के आलेख पर सर्व प्रथम गणेशजी ने आ कर अपना स्थान ग्रहण कर लिया है. आइये उनको साष्टांग प्रणाम करने के बाद हम इस आध्यात्मिक आलेखों की शृंखला शुरू करें.
___________ _________ ___________ __________ __________ __________ ___________
आप, मैं, हम सबके परिवार, हमारा समाज, अलग अलग समाजके सदस्य, गाँव, शहरें, राज्यों, पूरा देश, सिर्फ भारत देश ही नहीं, लेकिन दुनियाके देशों की जनता सबके दिलमे ऐसे कई सारे मुश्कील प्रश्नों हमारी बुध्धि और logical analyses को चुनौती दे रहे हैं. हम सबको अपनी, अपनी शिकायतें हैं, गहरी कठीनाइओं की लम्बी दीवारें खड़ी हो चुकी है, जो गिराई नहीं जाती. और इन्ही दिवारोके अंदर सिकुड़ कर हम सब जी रहे हैं, बस जीते ही जाते हैं. हम खुदकी जगह पर हम सब ‘अर्जुन’ हैं.
एक दूसरोंके खुनके रिश्ते- नातोंमे बंधे होनेके वावजूद क्यों लोग एक-दूसर्के प्रति घृणा, तिरस्कार और ईर्श्याकी आगमे जल रहे हैं? क्यों जो अपना नहीं है उसे अपना साबित करने पर तुले हुए हैं? हमारे जन्म के पहले कितनी पीढीओं से हम एक ही पेडसे निकली हुई डालियों के पतज़ड हैं, फिर भी माल-मिलकियत के विषय पर आपस-आपसमे लड्नेको तैयार हो जाते हैं?
यही है ५००० वर्षों से अधिक समयसे ‘मानव-अर्जुनों’ के दिलमे भभकती हुई अन्यायों की आग और फ़रियादें , जो हमें भगवद गीताका पहले अध्याय “विषाद योग से बाहर नहीं निकलने देती. श्री कृष्ण भगवानने रणभूमिके के मध्यमे समजाई हुई गीताके बाद हम सब कई कितनी योनिओं से गुज़रते हुए अनगिनत जन्म लेते आये हैं. फिर भी आज हम विषाद योग से बाहर नहीं नीकल पाए. जन्म-मृत्युके इन अनगिनत फेरों में से छूटकारा पाने के लिए हमें ‘मोक्ष-संन्यास योग तक पहूंचना है – अठारह अध्यायों को समजना है, जीवनमे उतारना है तब जा कर ईश्वर हमारे सामने आ कर हमें कहेंगे, कि:
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
लेकिन आज, जन्माष्टमीके पहले दिन आइए, हम सब मिलकर ‘अर्जुन-विषाद योग’ के एक श्लोक द्वारा हम सबकी व्यथा ईश्वरको सुनाएं
“यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।1.46।।“
अर्थात”
“अगर मैं युद्धसे सर्वथा निवृत्त हो जाऊँगा, तो शायद ये दुर्योधन आदि भी युद्धसे निवृत्त हो जायँगे। कारण कि हम कुछ चाहेंगे ही नहीं, लड़ेंगे भी नहीं, तो फिर ये लोग युद्ध करेंगे ही क्यों? परन्तु कदाचित जोशमें भरे हुए तथा हाथोंमें शस्त्र धारण किये हुए ये धृतराष्ट्रके पक्षपाती लोग 'सदाके लिये हमारे रास्तेका काँटा निकल जाय, वैरी समाप्त हो जाय'--ऐसा विचार करके सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मेरेको मार भी दें, तो उनका वह मारना मेरे लिये हितकारक ही होगा। कारण कि मैंने युद्धमें गुरुजनोंको मारकर बड़ा भारी पाप करनेका जो निश्चय किया था, उस निश्चयरूप पापका प्रायश्चित्त हो जायेगा, उस पापसे मैं शुद्ध हो जाऊँगा। तात्पर्य है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तो मैं भी पापसे बचूँगा और मेरे कुलका भी नाश नहीं होगा।“
हम सभी अर्जुनोंके भीतर कौटुम्बिक मोह है और उस मोहसे आविष्ट होकर ही हम धर्मकी, साधुताकी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कह रहे हैं। अतः जिन लोगोंके भीतर कौटुम्बिक मोह है, उन लोगोंको ही अर्जुनकी बातें ठीक लगेंगी। परन्तु भगवान्की दृष्टि जीवके कल्याणकी तरफ है कि उसका कल्याण कैसे हो?
अस्तु.
Bhagavad Geeta Shloka Pearls
By Courtosy of Dr Sanjiv Haribhakkti
Adhyaya 1
Arjun Vishad Yog
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।
{{commentsModel.comment}}